हिंदी को व्यवहार में लाने की सरकारी अपील आपने रेलवे स्टेशनों तथा अन्य सरकारी कार्यालयों में पढ़ी होगी; परन्तु क्या आपको पता है कि विश्व के इस सबसे बड़े प्रजातंत्र में आजादी के पैंसठ वर्षों के पश्चात् भी सर्वोच्च न्यायालय की किसी भी कार्यवाही में हिंदी का प्रयोग पूर्णतः प्रतिबंधित है? और यह प्रतिबंध किसी अधिकारी की मनमानी की वजह से नहीं बल्कि भारतीय संविधान की व्यवस्था के तहत है।
संविधान के अनुच्छेद 348 के खंड(1) के उपखंड(क) के तहत उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियां अंग्रेजी भाषा में होंगी। यद्यपि इसी अनुच्छेद के खंड(2) के तहत किसी राज्य का राज्यपाल उस राज्य के उच्च न्यायालयों में हिंदी भाषा या उस राज्य की राजभाषा का प्रयोग राष्ट्रपति की पूर्व सहमति के पश्चात् प्राधिकृत कर सकेगा। यद्यपि इस खंड की कोई बात ऐसे उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए किसी निर्णय, डिक्री या आदेश पर लागू नहीं होगी। अर्थात् इस खंड के तहत उच्च न्यायालयों में भारतीय भाषा के सीमित प्रयोग की ही व्यवस्था है; और इसके तहत उच्च न्यायालय में भी भारतीय भाषा का स्थान अंग्रेजी के समतुल्य नहीं हो पाता।
केवल चार राज्यों के न्यायालयों में भारतीय भाषा का प्रयोग
संविधान लागू होने के तिरसठ वर्ष पश्चात् भी केवल चार राज्यों के उच्च न्यायालयों में ही किसी भारतीय भाषा के प्रयोग को स्वीकृति मिली है। 14 फरवरी, 1950 को राजस्थान के उच्च न्यायालय में हिंदी का प्रयोग प्राधिकृत किया गया। तत्पश्चात् 1970 में उत्तर प्रदेश, 1971 में मध्य प्रदेश और 1972 में बिहार के उच्च न्यायालयों में हिंदी का प्रयोग प्राधिकृत किया गया। अतः इन चार उच्च न्यायालयों को छोड़कर देश के सभी उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियों में अंग्रेजी अनिवार्य है।
सन् 2002 में छत्तीसगढ़ सरकार (राज्यपाल) ने इस व्यवस्था के तहत उस राज्य के उच्च न्यायालय में हिंदी का प्रयोग प्राधिकृत करने की मांग केन्द्र सरकार (राष्ट्रपति) से की। सन् 2010 एवं 2012 में तमिलनाडु एवं गुजरात सरकारों ने अपने उच्च न्यायालयों में तमिल एवं गुजराती का प्रयोग प्राधिकृत करने के लिए केंद्र सरकार से मांग की। परन्तु इन तीनों मामलों में केन्द्र सरकार ने राज्य सरकारों की मांग ठुकरा दी।
यह केन्द्र सरकार का न केवल अप्रजातांत्रिक एवं जनविरोधी रवैया है, वरन् यह भारतीय संविधान के संघीय ढांचे पर भी प्रहार है। सन् 2002 के पूर्व किन-किन राज्य सरकारों ने इस तरह की मांग की, यह मुझे ज्ञात नहीं है।
संविधान संशोधन ही उचित रास्ता
सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी के प्रयोग की अनिवार्यता हटाने और एक या एकाधिक भारतीय भाषा को प्राधिकृत करने का अधिकार राष्ट्रपति या किसी अन्य अधिकारी के पास नहीं है। अतः सर्वोच्च न्यायालय में एक या एकाधिक भारतीय भाषा का प्रयोग प्राधिकृत करने के लिए संविधान संशोधन ही उचित रास्ता है। अतः संविधान के अनुच्छेद 348 के खंड (1) में संशोधन के द्वारा यह प्रावधान किया जाना चाहिए कि उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियां अंग्रेजी अथवा कम-से-कम किसी एक भारतीय भाषा में होंगी।
इसके तहत मद्रास उच्च न्यायालय में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम तमिल, कर्नाटक उच्च न्यायालय में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम कन्नड़, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखंड और झारखंड के उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम हिंदी और इसी तरह अन्य प्रांतों के उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम उस प्रान्त की राजभाषा को प्राधिकृत किया जाना चाहिए और सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम हिंदी को प्राधिकृत किया जाना चाहिए।
ध्यातव्य है कि भारतीय संसद में सांसदों को अंग्रेजी के अलावा संविधान की अष्टम अनुसूची में उल्लिखित सभी बाईस भारतीय भाषाओं में बोलने की अनुमति है। श्रोताओं को यह विकल्प है कि वे मूल भारतीय भाषा में व्याख्यान सुनें अथवा उसका हिंदी या अंग्रेजी अनुवाद सुनें, जो तत्क्षण-अनुवाद द्वारा उपलब्ध कराया जाता है। अनुवाद की इस व्यवस्था के तहत उत्तम अवस्था तो यह होगी कि सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में एकाधिक भारतीय भाषाओं के प्रयोग का अधिकार जनता को उपलब्ध हो परन्तु इन न्यायालयों में एक भी भारतीय भाषा के प्रयोग की स्वीकार्यता न होना हमारे शासक वर्ग द्वारा जनता को खुल्लमखुल्ला शोषित करते रहने की नीति का प्रत्यक्ष उदाहरण है।
मजबुरी...अंग्रेजी जानने वाले वकील रखने की
किसी भी नागरिक का यह अधिकार है कि अपने मुकदमे के बारे में वह न्यायालय में बोल सके, चाहे वह वकील रखे या न रखे। परन्तु अनुच्छेद 348 की इस व्यवस्था के तहत देश के चार उच्च न्यायालयों को छोड़कर शेष सत्रह उच्च न्यायालयों एवं सर्वोच्च न्यायालय में यह अधिकार देश के उन सन्तानवे प्रतिशत (97 प्रतिशत) जनता से प्रकारान्तर से छीन लिया है जो अंग्रेजी बोलने में सक्षम नहीं हैं। सन्तानवे प्रतिशत जनता में से कोई भी इन न्यायालयों मुकदमा करना चाहे या उन पर किसी अन्य द्वारा मुकदमा दायर कर दिया जाए तो मजबूरन उन्हें अंग्रेजी जानने वाला वकील रखना ही पड़ेगा जबकि अपना मुकदमा बिना वकील के ही लड़ने का हर नागरिक का अधिकार है। अगर कोई वकील रखता है तो भी वादी या प्रतिवादी यह नहीं समझ पाता है कि उसका वकील मुकदमे के बारे में महत्वभपूर्ण तथ्यों को सही ढंग से रख रहा है या नहीं।
भेदभावपूर्ण व्यवहार
अगर चार उच्च न्यायालयों में भारतीय भाषा में न्याय पाने का हक है तो देश के शेष सत्रह उच्च न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र में निवास करने वाली जनता को यह अधिकार क्यों नहीं? क्या यह उनके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार नहीं है? क्या यह अनुच्छेद 14 द्वारा प्रदत्त ‘विधि के समक्ष समता’ और अनुच्छेद 15 द्वारा प्रदत्त ‘जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध’ के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं है? और इस आधार पर छत्तीसगढ़, तमिलनाडु और गुजरात सरकार के आग्रहों को ठुकराकर क्या केन्द्र सरकार ने देशद्रोह एवं भारतीय संविधान की अवमानना का कार्य नहीं किया है? यह कहना कि केवल हिंदी भाषी राज्यों (बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान) के उच्च न्यायालयों में भारतीय भाषा का प्रयोग अनुमत होगा, अहिंदीभाषी प्रांतों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार है परन्तु अगर यह तर्क भी है तो भी छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखंड एवं झारखंड के उच्च न्यायालयों में हिंदी का प्रयोग अनुमत क्यों नहीं है? निचली अदालतों एवं जिला अदालतों में भारतीय भाषा का प्रयोग अनुमत है।
अतः उच्च न्यायालयों में जब कोई मुकदमा जिला अदालत के बाद अपील के रूप में आता है तो मुकदमे से संबद्ध निर्णय एवं अन्य दस्तावेजों के अंग्रेजी अनुवाद में समय और धन का अपव्यय होता है; वैसे ही बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान उच्च न्यायालयों के बाद जब कोई मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय में आता है तो भी अनुवाद में समय और धन का अपव्यय होता है। प्रत्येक उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय में एक-एक भारतीय भाषा का प्रयोग भी अगर अनुमत हो जाए तो उच्च न्यायालय तक अनुवाद की समस्या पूरे देश में लगभग समाप्त हो जाएगी और सर्वोच्च न्यायालय में भी अहिंदी भाषी राज्यों के भारतीय भाषाओं के माध्यम से संबद्ध मुकदमों में से जो मुकदमे सर्वोच्च न्यायालय में आएंगे, केवल उन्हीं में अनुवाद की आवश्यकता होगी।
वकालत करने एवं न्यायाधीश बनने के अवसरों में असमानता
सर्वोच्च न्यायलय एवं उच्च न्यायालयों में वकालत करने एवं न्यायाधीश बनने के अवसरों में भी तीन प्रतिशत अंग्रेजीदां आभिजात्य वर्ग का पूर्ण आरक्षण है, जो कि ‘अवसर की समता’ दिलाने के संविधान की प्रस्तावना एवं संविधान के अनुच्छेद 16 के तहत ‘लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता’ के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। इसके अलावा उच्च न्यायालयों एवं
अंग्रेजी की अनिवार्यता : संवैधानिक व्यवस्थाओं का उल्लंघन
सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी की अनिवार्यता निम्नलिखित संवैधानिक व्यवस्थाओं का भी उल्लंघन है:
(1.) संविधान की प्रस्तावना के अनुसार भारत को ‘समाजवादी लोकतंत्रात्मक गणराज्य’ बनाना है और भारत के नागरिकों को ‘न्याय’ और ‘प्रतिष्ठा और अवसर की समता’ प्राप्त कराना है तथा ‘व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता’ को बढ़ाना है।
(2.) अनुच्छेद 38 – राज्य लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए काम करेगा। अनुच्छेद 39 – राज्य अपनी नीति का विशेष रूप से इस प्रकार संचालन करेगा कि सुनिश्चित रूप से सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो। अनुच्छेद ‘39 क’ – राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि कानून का तंत्र इस प्रकार काम करे कि समान अवसर के आधार पर न्याय सुलभ हो और किसी भी असमर्थता के कारण कोई नागरिक न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रह जाए।
(3.) अनुच्छेद ‘51 क’ – भारत के प्रत्येक नागरिक का यह मूल कर्तव्य है कि वह स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उनका पालन करे और भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे, जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो। ध्यातव्य है कि ‘स्वराज’ हमारे स्वतंत्रता आंदोलन का पथ-प्रदर्शक सिद्धांत था और हिंदी व अन्य जन-भाषाओं का प्रयोग तथा अंग्रेजी के प्रयोग का विरोध गांधीजी की नीति थी और राष्ट्रभाषा का प्रचार-प्रसार उनके रचनात्मक कार्यक्रम का मुख्य बिंदु था। स्पष्ट ही हमारे शासक वर्ग मूल कर्तव्यक का उल्लंघन कर रहे हैं।
(4.) अनुच्छेद 343 – संघ की राजभाषा हिंदी होगी। अनुच्छेद 351 – संघ का यह कर्तव्या होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे और उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे।
अनुच्छेद 348 में संशोधन करने की हमारी प्रार्थना एक ऐसा विषय है जिसमें संसाधनों की कमी का कोई बहाना नहीं बनाया जा सकता है। यह शासक वर्ग द्वारा आम जनता को शोषित करते रहने की दुष्ट भावना का खुला प्रमाण है। यह हमारी आजादी को निष्प्रभावी बना रहा है। क्या स्वाधीनता का अर्थ केवल ‘यूनियन जैक’ के स्थान पर ‘तिरंगा झंडा’ फहरा लेना है? कहने के लिए भारत विश्व का सबसे बड़ा प्रजातंत्र है, परन्तु जहां जनता को अपनी भाषा में न्याय पाने का हक नहीं है, वहां प्रजातंत्र कैसा? दुनिया के तमाम उन्नत देश इस बात के प्रमाण हैं कि कोई भी राष्ट्र विदेशी भाषा में काम करके उन्नति नहीं कर सकता। किसी भी विदेशी भाषा के माध्यम से आम जनता की प्रतिभा की भागीदारी देश की विकास-प्रक्रिया में नहीं हो सकती। प्रति व्यक्ति आय की दृष्टि से विश्व के वही देश अग्रणी हैं जो अपनी जन-भाषा में काम करते हैं; और प्रति व्यक्ति आय की दृष्टि से विश्व के वे देश सबसे पीछे हैं जो विदेशी भाषा में काम करते हैं। विदेशी भाषा में उन्हीं अविकसित देशों में काम होता है, जहां का बेईमान आभिजात्य वर्ग विदेशी भाषा को शोषण का हथियार बनाता है और इसके द्वारा विकास के अवसरों में अपना पूर्ण आरक्षण बनाए रखना चाहता है।
सरकार “तुगलकी” रवैया
मार्च 2012 से हम (न्याय एवं विकास अभियान) भारत सरकार एवं विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं से प्रार्थना करते रहे हैं कि अनुच्छेद 348 में संशोधन हो। 11 सितंबर 2012 को हमने श्रीमती सोनिया गांधी के निवास के बाहर सत्याग्रह करने का इरादा जताया तो हमें एक सप्ताह का समय और देने को कहा गया। 19 सितंबर को हमने श्रीमती सोनिया गांधी के निवास के बाहर सत्याग्रह करना चाहा परंतु पुलिस ने हमें थाने में ही गिरफ्तार रखा। बाद में हम शाम को 8 बजे इस शर्त पर धरना पर नहीं जाने के लिए राजी हुए कि 6 दिनों के भीतर हमारी मांग पर विचार किया जाएगा। इस आश्वासन के अनुरूप 21 सितंबर को हमें बताया गया कि 19 सितंबर के हमारे पत्र को सोनियाजी ने श्री ऑस्कर फर्नांडिस, महासचिव, कांग्रेस पार्टी के पास विचारार्थ भेजा है। ऑस्करजी ने 23 सितंबर 2012 से लेकर 30 अक्तूबर 2012 के बीच हमें पांच बार मिलने के लिए कांग्रेस मुख्यालय में बुलाया। उन्होंने तत्कालीन कानून मंत्री श्री सलमान खुर्शीद को पत्र लिखा। हम उस पत्र की भाषा से संतुष्ट थे। श्री फर्नांडिस ने इस विषय पर अपनी रिपोर्ट श्रीमती सोनिया गांधी को 29 अक्तूबर 2012 को सौंपी। हम उस रिपोर्ट से संतुष्ट थे और श्री फर्नांडिस ने आशा व्यक्त की कि संसद के शीत-सत्र में इस विषय पर संविधान संशोधन विधेयक पेश किया जाना चाहिए। परंतु इस विषय पर कोई घोषणा न पाकर हमने श्रीमती गांधी को 14 नवंबर 2012 एवं 28 नवंबर 2012 को पत्र लिखा और 4 दिसंबर 2012 से उनके निवास एवं उनके कार्यालय के बाहर अकबर रोड पर लगातार सत्याग्रह पर बैठे हैं। परंतु ज्यादातर समय पुलिस हमें मनमाने ढंग से तुगलक रोड थाना में गिरफ्तार रखती है। 4 दिसंबर से लेकर अब तक मैं कभी भी किसी व्यक्तिगत कार्य से अन्यत्र घर, पोस्ट ऑफिस, बैंक, बाजार इत्यादि नहीं गया।
इस विषय में संविधान संशोधन विधेयक संसद में प्रस्तुत करने हेतु देश के सजग नागरिक सरकार पर दबाव डालें, यही मेरा आग्रह है।
- श्याम रुद्र पाठक
संयोजक, न्याय एवं विकास अभियान