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Bhartiya No. 1 (Nationalist)     25 November 2010

Some of the Poems of Neelamji!!

Below are some of the poems written by Neelamji,

क्यूँ न पूछूं तुमसे, जो दौड़े जाते हो पैसे के पीछे
पागल हाथी से मस्त ,रौंदते हुए इंसानियत को अपने नीचे

इस तरह ज्यादा कमाओगे तोह क्या रोटी की जगह पैसे को खाओगे?
कपड़ो की जगह सोना चांदी पहनोगे!
और मकान की जगह अजायबघर बनाओगे !
रिश्तों की जगह जी हुजूरी करने वालों का मजमा लगाओगे?
कद बड़ा करने के लिए रुपये की सीढ़ी लगाओगे ?
धोखा दोगे,झूठ बोलोगे,
रुपये की हड्डी के पीछे भागोगे कुते की तरह और इस तरह रुपया कमाओगे
औरों की छोडो अपनी नज़र में गिर नहीं जाओगे?




कभी सोचा मरते वक़्त तुम्हारी कितनी ज़मीन ले जाओगे अपने संग?
तुम्हारी कितनी गाड़ियाँ ढोएंगी तुम्हारी मौत के बाद तुम्हारा तन?
अपनी कितनी पीढ़ियों का तुम इन्तेजाम करके जाओगे?
क्या गारंटी है की औलाद से ठगे नहीं जाओगे?
जो बोया है वो काटने नहीं आओगे?



Learning

 5 Replies

Arvind Singh Chauhan (advocate)     26 November 2010

Heart touching lesson.

Bhartiya No. 1 (Nationalist)     26 November 2010

Here In this thread I will be posting some of the hindi poems written by Neelamji, plz. ahve look at the poem below ,

 

अभिनय

कुछ गौर से देखो तोह इन्सान घटते जा रहे हैं,
और चारों ओर बस अभिनेता बढ़ते जा रहे हैं,
लाचारी का अभिनय ,कभी दुश्वारी का अभिनय
औरों को लूटने के लिए अभिनय ही अभिनय

चेहरों पर चेहरे ,छुपाने को दाग गहरे
पर छुपते कहाँ है राज़ ,लगे हों कितने पहरे
हंसती है कुदरत देख कर इन्सान की कारीगरी,
खुद को एक से अनेक करने की जादूगरी


कहाँ से सीखा ये सब बताओ तोह ज़रा?
रंग बदलने के लिए इतना रंग कहाँ है भरा ?
तोह इन्सान की नस्ल छोड़ कर गिरगिट हो गए हो
पहुँच सके तुम तक कोई इतने ऊंचे हो गए हो

औरों को धोखा देना महज़ स्वार्थ के लिए?
जीना तुम्हारा है बस अपनेआप के लिए ?
समय मिले तोह ढूंढना उस क्षण को
नकारना सीखा था जब स्वयं को

इच्छाओं का लालच था सामने या डर गए थे समाज से
क्या था जो इस कदर बिछड़ गए अपने आप से
हो सके तोह लौट जाना ,हो सके तोह फिर से खुद को पाना
तुम बेहद खूबसूरत थे अब कितने विकृत हो गए हो

Bhartiya No. 1 (Nationalist)     27 November 2010

Below is another beautiful poem of Neelamji, Plz. have a look,

 

पर.............

छोड़ना पड़ा था उसका देस,
पर जब काँटों से पैर जख्मी हो गए ,तब याद आया ,
उसके साथ रहते भी तोह कितनी चोटें लगती रहती थी मुझको
इंसानी ज़िन्दगी का तोह चोट से हमेशा रिश्ता रहा ही है
पर कब मेरे ज़ख्म भर जाते पता भी चलता था

लम्बा उबाऊ मुश्किल सफ़र तै हो जाता था चलते चलते
उसकी बातों में सूरज की रौशनी थी शायद जो रास्ते के अँधेरे का वजूद मिटा देती थी
अपनापन था कुछ ऐसा की ईमानदार होकर सोचूं तोह शायद मैं खुद भी कभी अपना इतना अपना बन पाया
आवाज़ थी ,शक्ल थी या शब्द थे क्या था जिसको मैं आज भी आँखों से ओझल कर पाया
कब मुझमें उसका साया समाया पता भी चला था

पर जानता हूँ मैं आज ,की आसान नहीं होता बेवजह किसीको झेलना
किसीकी तकलीफ उसकी आशंकाओं को यूँ ही सुनने से बचता है हर आदमी
किसीके लिए सच में मुस्कुराना भी आसान नहीं
यूँ तोह अभिनय करनेवालों से संसार भरा पड़ा है
पर दुनिया में सचमुच किसीका साथ देने से ज्यादा मुश्किल कोई काम नहीं
इतना सब करने के लिए प्रेम से भरे निश्छल हृदय की ज़रूरत होती है
वहीँ से आती है रौशनी और वहीँ से जन्म लेता है अपनापन
उसके पास वही था ,अब मुझे पता है

Bhartiya No. 1 (Nationalist)     29 November 2010

(समर्पित उनको जो सत्ता में हैं -घर, नौकरी,कक्षा ,राजनीति या किसी भी ऐसे स्थान पर जहाँ उनको सुनना लोगों की मज़बूरी है )

इससे मुझे क्या की वो सुनना नहीं चाहते जनता के सवाल
इससे मुझे क्या की औरों के वाजिब सवाल भी उनको अपने बेशकीमती समय की बर्बादी नज़र आते हैं
इससे मुझे क्या की उनको कोफ़्त होती है सवालों से
इससे मुझे क्या की उनको अच्छा लगता है जब हाँ -हाँ कर लोग उनकी बात मानते जाते हैं
इससे मुझे क्या की उनको कोई फर्क नहीं पड़ता की सवाल चुप नहीं हुए, सवाल पूछ्नेवालों लोगों की जुबान चुप हो गयी हैं
और जो शुरू से चुप बैठे हैं वो बेचारे कभी बोलना सीखे ही नहीं
दिखाए जाते रहे रास्ते से अलग कोई रास्ते उन्हें दीखे ही नहीं
मैंने सवाल पूछने हैं क्युकी मैं जानना चाहता है की मैं कहा जा रहा हूँ
मुझे सही रास्ते पर चलना है ,इसलिए सवाल पूछना मेरी अपनी जिम्मेदारी है
और हाँ जो सचमुच सही दिशा दिखाना चाहते हैं वो सवालों से नहीं बचते इतनी तोह उनको भी जानकारी है
तोह चलो आप अपनी राह चलो मैं अपनी चलूँगा
आप कोफ़्त महसूस करो मैं सवाल करूँगा
आप कोफ़्त महसूस करो मैं सवाल करूँगा
क्यूंकि मैं जानता हूँ ऐसा तोह युगों से रहा है ताना बाना
हमेशा जनता के सवालों से सत्ता का झुंझलाना

तोह चलो आप अपनी राह चलो मैं अपनी चलूँगा
आप कोफ़्त महसूस करो मैं सवाल करूँगा


Bhartiya No. 1 (Nationalist)     01 December 2010

क्यूँ ?

क्यूँ तोड़ते नहीं नाजायज़ बन्धनों को ?
क्या क़ैद में रहने की आदत हो गयी है
क्यूँ सहते हो ज़ुल्मों को?
क्या कायरता अब इबादत हो गयी है
क्यूँ ख्हौलता नहीं खून तुम्हारा जब गलत घटता है कुछ ?
क्या झूठ की तुम्हारी रगों में भी मिलावट हो गयी है
क्यूँ लड़ते नहीं अपने हक के लिए?
क्या अपनी ही आवाज़ को कुचलने की फितरत हो गयी है
तुम्हे लगता है बदी के बद से ख़राब हुई है दुनिया?
सच ये है की तुम्हारे जैसे चुप रहनेवालों से इसकी ये हालत हो गयी है.


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